Friday, April 11, 2008

आजादी

जब भारत मान के अपने बेटे,
सीना छलनी करते है,
भाई भाई का बड़े चो से,
लहू पी लिया करते है,
अंग्रेजो से आजादी ली हमने,
सीना तान के,
फिर क्यों बैरी बने हुए है,
ख़ुद अपनी ही जान के,
छोटी छोटी बातों पर क्यों,
चाकू छुरियां चलती है,
क्यों लोगो के बीह में अब,
शक की कलियाँ खिलती है,
आदर्शो के सूखे नारे,
हर रोज़ लगाए जाते है,
बेईमानी के पानी से क्यों,
गले भिगाये जाते है,
क्यों सिसक सिसक के कोई बेटी,
जीवन अपना जीती है,
समाज के कच्चे तारो से क्यों,
लबो को अपने सीटी है,
कितने ही रावण कलयुग में,
लंका अपनी बसाते है,
और कितनी ही सीटों को हम,
बेदी पर चढाते है,
एक रोटी के टुकड़े पर क्यों,
कुत्ते से लोग लपकते है,
मानव का व्यवहार छोड़ क्यों,
पशुओ सी आँख झपकते है,
हर नुक्कड़ पर एक नया मवाली,
पल पल में पैदा होता है,
चांदी के चाँद टुकडों में,
लोगो का सौदा होता है,
ये आजादी है तो क्या हमने,
आजादी को पहचाना है,
औरो की बात करू मैं क्या,
क्या स्वयं को हमने जाना है,
क्या स्वयं को हमने जाना है ||

प्रतिरोध

हूँ श्रेष्ठ मैं, उत्कृष्ठ मैं,
मन मूढ़ है ये सोचता,
संसार को परितक्त्य करके,
ख़ुद में रसो को ढूँढता,
अपनी त्रुटी पर हास्य करके,
मैं जीतता हूँ स्वयं से लड़के,
प्रकाश मिश्रित कालिमा में,
परिचय अपना खोजता,
अतीत की परछियो में,
जब ह्रदय ये झाकता है,
दूर दिखता हूँ शिखर पर,
सफलता के उच्चतम डगर पर,
गद्गादाती तालियों की,
हर तरफ़ झंकार है,
नाम ही हर पल है मेरा,
मेरी जय जयकार है,
वाणी में इतनी पबलता,
भेदती आकाश को,
चेहरे पर जो तेज चमके,
ढक ले सूर्य प्रकाश को,
जो चेतना पहले थी मेरी,
अब टू जड़ सी हो गयी है,
उन्माद की अमूल्य हांडी,
मुझसे कही टू खो गयी है,
मेरा ही अतीत अब क्यों,
पीछे मुझको खीचता है,
कोई नयी रचना करूं मैं,
हक़ क्यों मुझसे छीनता है,
अपने इस प्रतिरोध का तुम,
बोलो मैं प्रतिशोध क्या लू,
जब रिपु मुझमे ही है तो,
कैसे उसका क्षय करू,
पर आज प्रण करता हूँ मैं ये,
प्रतिरोध अब आने न दूँगा,
पंख मिले या न मिले,
पर मैं गगन में फिर उडूंगा,
पर मैं गगन में फिर उडूंगा ||

Thursday, April 10, 2008

ऐश तेरा सौंदर्य


ऐश तेरा सौंदर्य,
हमे एहसास दिलाता है;
की इश्वर पृथ्वी पर कुछ ही सही,
परियां भी बनता है;
तुझे उसने मिटटी से नही,
केसर से बनाया होगा;
फिर आंखों में पत्थर की जगह,
तारों को लगाया होगा;
तेरे आगे हर आकर्षण,
तुच्छ हो जाता है;
ऐश तेरा सौंदर्य,
हमे एहसास दिलाता है;
जुल्फों को तेरी घटाओं के,
दस्ते से सजाया होगा;
लबों को तेरे सूरज की,
लाली से भिगाया होगा;
सुबह को, तेरे चेहरे की,
सुनहरी मुस्कान, और संध्या को,
तेरे नैनो का दमकता काजल भी बनाया होगा;
तेरे बखान में हर शब्द,
फीका पड़ जाता है;
ऐश तेरा सौंदर्य,
हमे एहसास दिलाता है;
ऐश तेरा सौंदर्य,
हमे एहसास दिलाता है;

प्रेम

चल खो जाए अब तारों की,
चादर के हम तुम नीचे;
न फिक्र रहे, भय लगे न कोई,
बस अँखियाँ मीचे मीचे;
बस अँखियाँ मीचे मीचे,
हम तुम प्रेम के रिश्ते बोये;
गर सख्त लगे कभी ह्रदय भूमि तो,
अपने सुख दुःख सीचे;
मोती ये यादों के जो,
नैनन से झर जाए;
न रोक लगे इन पर कोई,
न कहने पर आए;
तू प्रेम के धागे से अपने,
बाँध ले इनको साथी;
हर धन से ऊंची पूँजी है,
कीमत नही जरा सी;

उड़ान



कितने सारे अरमानों को,
पुरा मुझको करना है,
पंख मिले या न मिले अब,
बस मुझको तो उड़ना है.

उड़ना है उन्मुक्त गगन में,
पहुचना है तारो से दूर,
चमकना है जहाँ में ऐसे,
जैसे चमके लाल सिन्दूर,
न दिन का न ही रातो का,
फर्क अब मुझे करना है,
पंख मिले या न मिले अब,
बस मुझको तो उड़ना है.

कितने ही शिखरों को जाने,
और परास्त करना होगा,
इस भयानक अंधकार से,
जाने कब सूर्योदय होगा,
परिश्रम के इस दीपक को,
सदा यूं ही प्रज्वाल्लित रखना है,
पंख मिले या न मिले अब,
बस मुझको तो उड़ना है.

दिल करता है की बस अब उड़कर,
दूर कहीं छुप जाऊं मैं,
इसका मतलब की दुनिया में लेकिन,
कभी न वापस आऊं मैं,
पर अपने हर डर से मुझको,
बस मुझको ही लड़ना है,
पंख मिले या न मिले अब,
बस मुझको तो उड़ना है.

बचपन



वो याद सुनहरे बचपन की,
उस भोले भाले हध्पन की;
उन मासूम सी शरारतों की,
उन अगड़म बगड़म सी आदतों की;
वो गोद में बैठ के लोरी सुन ना ,
नित नए नए सपने बुन ना ;
वो चाँद सूरज के साथ खेलने की,
अनूठी सी कल्पना करना;
वो हरा आकाश, वो लाल पानी,
और तारों की गिनती करना;
वो आधारहीन से प्रश्नों की,
मूसलाधार वर्षा करना;
वो उचल कूद, वो भाग दौड़,
वो नए नए खेल रचना;
वो फिस्सल पट्टी की धूल में,
सारे हाथ पैर भरना;
वो ICE CREAMS, वो CHOCLATES,
की मीठी सी रिश्वत लेना;
बड़ी बड़ी सी दीवारों पर,
चित्रकला अपनी करना;
वो याद सुनहरे बचपन की,
जीवन भर तड़पाती है;
की हर उम्र बचपन होती क्यों नही,
बस यही प्रश्न दोहराती है;
है क्या जीवन, गर जीवन में,
बचपन की शहनाई न हो;
कोई रंग न हो, कोई रूप ना हो;
यादों की गर्म मलाई ना हो;
वो याद सुनहरे बचपन की,
मुझे पचपन तक तडपाएगी,
की हर उम्र बचपन होती क्यों नही,
बस यही प्रश्न दोहराएगी....................................

मंजिल

तलाश रहा हूँ जिस मंजिल को,
उसके राही और भी हैं;
खीच रहा हूँ जिस कश्ती को,
उसके मांझी और भी है;
देख रहा हूँ जिन सपनो को,
वो किसी और की आंखों में भी हैं;
सोच रहा हूँ जिस भविष्य की,
उसके अभिलाषी और भी है;
तड़प रहा हूँ जिस दुख से में,
उसके भागी और भी हैं;
बन्ध चुका हूँ जिस बन्धन में,
उसके कैदी और भी है;
फिर भी ख़ुद पर है यकीन ये,
इस दौड़ में जीतूँगा में ही;
गर मेहनत करू निरंतर निशदिन,
कामयाबियां आगे और भी है..................

सावनी समां

घनघोर पिपासा धरती की,
सावन ही तो शांत करे;
मद्धम मद्धम फुहारों से,
हर हृदय में आनंद भरे;
गरज गरज कर बरसे मेघ,
मेघ का भी तुम नाद सुनो;
इस समां में नौ रस घुले हुए,
थोड़ा टू उन पर गौर करो;
रोम रोम मेरा पुलकित है,
तन महका धरा की खुशबू से;
प्रेम के अंकुर फ़ुट पड़े,
मेरे भीतर की आरजू से;
कद कद कड़कती बिजली से,
मन मेरा भयभीत हुआ;
फिर भय को अपने जीत के मैं,
पथ पर आगे निर्भीक हुआ;
धरती का कण कण आनंदित है,
नीर के संग संग में मिश्रित है;
चकित हुआ मैं देख के ये की,
जीव अजीव सभी जीवित है;
थम गयी वर्षा हर रूप दिखा कर,
जीवन का कुछ सार सिखा कर;
फिर गगन के स्वामी सूर्य बन गए,
बदरा काले सभी छन गए;
हर ओर छा गयी धुप कुंकुनी,
डाली नभ ने सुनहरी ओढ़नी;
पंछियों का कलरव गीत सुनाता,
इस समां को और रंगीन बनता;
हरयाली की चादर पर फिर,
फिर हुआ मोतियों का श्रृंगार;
इस सावन में शायद मुझको,
हुआ सकल जगत से प्यार;
डूब गया मैं प्रेम के इस,
गहरे अनूठे सागर में;
खार नही था जिसके जल में,
बस छीर ही आया गागर में;
जीत कर भी हार का तो,
मुझ पर ही प्रहार हुआ;
ये सावन तो बीत गया अब,
किसका मुझे आधार हुआ;
कहाँ से लाऊ वो सौंदर्य,
नैनो को मेरे जो भाता था;
कहाँ से ला वो सावन,
जो दिल को सुकून दे जाता था;
वो कीचड में छप छप करके उछालना,
वो राहों में गिरकर फिर से संभालना;
, वो सतरंगी चमन;
वो सावन के झूले , वो बादलों का रुदन;
वो मयूर का नृत्य, वो मनोरम समां;
वो पल जहाँ हुआ, मेरा बचपन जवान;
कितनी ही ऐसी यादें है,
जिन्हें कभी भुला न पाऊंगा;
साँस तो हर पल ले लूंगा मैं,
पर जी, जी बस सावन में पाऊंगा.......................

कुंकुनी सी धुप

कुंकुनी सी धुप के,
मखमली इस रूप में;
सुरमई फिजाओं के,
चंचल स्वरूप में;
कितनी उत्तेजना है,
गगन के इस रंग में;
कितना आह्लाद मिलता,
साथी तेरे संग में;
ये मधुर संबंद्ध है,
तेरी मेरी स्वांस का;
बिन तेरे भी जो है होता,
तेरे ही एहसास का;
प्रेम ने तेरे मुझे,
क्यों ये दिया मीठा ज़हर;
की आँख खोले मैं हूँ रहता,
अब तो बस आंठों पहर;
रोम रोम प्यार में,
मेरा यूं कुछ नम हुआ;
दिल का दिल से,मन का मन से,
जैसे ही संगम हुआ;
दुनिया में तेरा सानी,
दूसरा हमदम न हो;
जब तलक जीवित रहे हम,
प्रेम अपना कम न हो;
प्रेम अपना कम न हो......

बस तुझको ही पाना है

ऐ प्यार मेरे, चल आज तेरा,
मैं ख़ुद यू कुछ श्रृंगार करू;
सौ जन्म भी कम पड़ जाए मुझे,
इतना मैं तुझसे प्यार करू;

रेशम की तरह है केस तेरे,
चेहरा है तेरा जैसे दर्पण;
तू अपनी महकी साँसों से,
महका दे मेरा ये तन मन;

नैनो में तेरे वो मस्ती है,
जिसे खोज रहा मेरा कण कण;
झलक तेरी एक पाने को,
मैं हार जाऊं अपनी धड़कन;

लहरा के मैं झूम गया,
उड़ चला बन मदमस्त पवन;
धरती का संग पाने को,
जैसे बढ़ता जाए गगन;

रूप के आगे तेरे ये,
चन्दा सूरज तारे क्या;
देख चुका हूँ जब तुझको,
तब बाकी बचे नजारे क्या;

शीतल हवा के झोंके सा,
ये स्पर्श तेरा सुहाना है;
कुछ और नही ख्वाहिश मेरी,
बस तेरा हो जाना है,
बस तुझको ही पाना है..............
..............बस तुझको ही पाना है