Thursday, April 10, 2008

सावनी समां

घनघोर पिपासा धरती की,
सावन ही तो शांत करे;
मद्धम मद्धम फुहारों से,
हर हृदय में आनंद भरे;
गरज गरज कर बरसे मेघ,
मेघ का भी तुम नाद सुनो;
इस समां में नौ रस घुले हुए,
थोड़ा टू उन पर गौर करो;
रोम रोम मेरा पुलकित है,
तन महका धरा की खुशबू से;
प्रेम के अंकुर फ़ुट पड़े,
मेरे भीतर की आरजू से;
कद कद कड़कती बिजली से,
मन मेरा भयभीत हुआ;
फिर भय को अपने जीत के मैं,
पथ पर आगे निर्भीक हुआ;
धरती का कण कण आनंदित है,
नीर के संग संग में मिश्रित है;
चकित हुआ मैं देख के ये की,
जीव अजीव सभी जीवित है;
थम गयी वर्षा हर रूप दिखा कर,
जीवन का कुछ सार सिखा कर;
फिर गगन के स्वामी सूर्य बन गए,
बदरा काले सभी छन गए;
हर ओर छा गयी धुप कुंकुनी,
डाली नभ ने सुनहरी ओढ़नी;
पंछियों का कलरव गीत सुनाता,
इस समां को और रंगीन बनता;
हरयाली की चादर पर फिर,
फिर हुआ मोतियों का श्रृंगार;
इस सावन में शायद मुझको,
हुआ सकल जगत से प्यार;
डूब गया मैं प्रेम के इस,
गहरे अनूठे सागर में;
खार नही था जिसके जल में,
बस छीर ही आया गागर में;
जीत कर भी हार का तो,
मुझ पर ही प्रहार हुआ;
ये सावन तो बीत गया अब,
किसका मुझे आधार हुआ;
कहाँ से लाऊ वो सौंदर्य,
नैनो को मेरे जो भाता था;
कहाँ से ला वो सावन,
जो दिल को सुकून दे जाता था;
वो कीचड में छप छप करके उछालना,
वो राहों में गिरकर फिर से संभालना;
, वो सतरंगी चमन;
वो सावन के झूले , वो बादलों का रुदन;
वो मयूर का नृत्य, वो मनोरम समां;
वो पल जहाँ हुआ, मेरा बचपन जवान;
कितनी ही ऐसी यादें है,
जिन्हें कभी भुला न पाऊंगा;
साँस तो हर पल ले लूंगा मैं,
पर जी, जी बस सावन में पाऊंगा.......................

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