Friday, April 11, 2008

प्रतिरोध

हूँ श्रेष्ठ मैं, उत्कृष्ठ मैं,
मन मूढ़ है ये सोचता,
संसार को परितक्त्य करके,
ख़ुद में रसो को ढूँढता,
अपनी त्रुटी पर हास्य करके,
मैं जीतता हूँ स्वयं से लड़के,
प्रकाश मिश्रित कालिमा में,
परिचय अपना खोजता,
अतीत की परछियो में,
जब ह्रदय ये झाकता है,
दूर दिखता हूँ शिखर पर,
सफलता के उच्चतम डगर पर,
गद्गादाती तालियों की,
हर तरफ़ झंकार है,
नाम ही हर पल है मेरा,
मेरी जय जयकार है,
वाणी में इतनी पबलता,
भेदती आकाश को,
चेहरे पर जो तेज चमके,
ढक ले सूर्य प्रकाश को,
जो चेतना पहले थी मेरी,
अब टू जड़ सी हो गयी है,
उन्माद की अमूल्य हांडी,
मुझसे कही टू खो गयी है,
मेरा ही अतीत अब क्यों,
पीछे मुझको खीचता है,
कोई नयी रचना करूं मैं,
हक़ क्यों मुझसे छीनता है,
अपने इस प्रतिरोध का तुम,
बोलो मैं प्रतिशोध क्या लू,
जब रिपु मुझमे ही है तो,
कैसे उसका क्षय करू,
पर आज प्रण करता हूँ मैं ये,
प्रतिरोध अब आने न दूँगा,
पंख मिले या न मिले,
पर मैं गगन में फिर उडूंगा,
पर मैं गगन में फिर उडूंगा ||

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