Thursday, April 10, 2008

कुंकुनी सी धुप

कुंकुनी सी धुप के,
मखमली इस रूप में;
सुरमई फिजाओं के,
चंचल स्वरूप में;
कितनी उत्तेजना है,
गगन के इस रंग में;
कितना आह्लाद मिलता,
साथी तेरे संग में;
ये मधुर संबंद्ध है,
तेरी मेरी स्वांस का;
बिन तेरे भी जो है होता,
तेरे ही एहसास का;
प्रेम ने तेरे मुझे,
क्यों ये दिया मीठा ज़हर;
की आँख खोले मैं हूँ रहता,
अब तो बस आंठों पहर;
रोम रोम प्यार में,
मेरा यूं कुछ नम हुआ;
दिल का दिल से,मन का मन से,
जैसे ही संगम हुआ;
दुनिया में तेरा सानी,
दूसरा हमदम न हो;
जब तलक जीवित रहे हम,
प्रेम अपना कम न हो;
प्रेम अपना कम न हो......

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