Thursday, April 10, 2008

बचपन



वो याद सुनहरे बचपन की,
उस भोले भाले हध्पन की;
उन मासूम सी शरारतों की,
उन अगड़म बगड़म सी आदतों की;
वो गोद में बैठ के लोरी सुन ना ,
नित नए नए सपने बुन ना ;
वो चाँद सूरज के साथ खेलने की,
अनूठी सी कल्पना करना;
वो हरा आकाश, वो लाल पानी,
और तारों की गिनती करना;
वो आधारहीन से प्रश्नों की,
मूसलाधार वर्षा करना;
वो उचल कूद, वो भाग दौड़,
वो नए नए खेल रचना;
वो फिस्सल पट्टी की धूल में,
सारे हाथ पैर भरना;
वो ICE CREAMS, वो CHOCLATES,
की मीठी सी रिश्वत लेना;
बड़ी बड़ी सी दीवारों पर,
चित्रकला अपनी करना;
वो याद सुनहरे बचपन की,
जीवन भर तड़पाती है;
की हर उम्र बचपन होती क्यों नही,
बस यही प्रश्न दोहराती है;
है क्या जीवन, गर जीवन में,
बचपन की शहनाई न हो;
कोई रंग न हो, कोई रूप ना हो;
यादों की गर्म मलाई ना हो;
वो याद सुनहरे बचपन की,
मुझे पचपन तक तडपाएगी,
की हर उम्र बचपन होती क्यों नही,
बस यही प्रश्न दोहराएगी....................................

2 comments:

jaya said...

tis poem of urs reflects a child's innocence n wen he grows up he cherishes d swt memories of childhood.

J said...

Those were really Incredible Days!